विद्रोही और राज 1857 का आंदोलन और उसके व्याख्यान

 

विद्रोही और राज 1857 का आंदोलन और उसके व्याख्यान

महत्त्वपूर्ण तथ्य ( Facts that Matter )

  • 10 मई 1857 का दिन भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण दिन था । आज ही के दिन दोपहर के पश्चात मेरठ छावनी में सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया । वस्तुतः विद्रोह की शुरुआत एक पैदल सैनिक ने की किंतु जल्द ही सभी सिपाहियों के साथ - साथ आसपास के लोग भी उसमें शामिल हो गए । सिपाहियों ने वहाँ के शस्त्रागार पर कब्जा कर लिया ।
  • मेरठ शहर को दिल्ली से जोड़ने वाली टेलीग्राफ़ लाइन काट दी गई । फिर सिपाहियों का एक दल दिल्ली की तरफ चल पड़ा और 11 मई को तड़के लाल किले के फाटक पर पहुँचा । वहाँ पहुँचकर सिपाहियों ने मुग़ल बादशाह बहादुर शाह को विद्रोह का नेतृत्व करने के लिए राजी कर लिया ।
  • विद्रोहियों को बहादुर शाह द्वारा समर्थन देने की खबर जंगल की आग की भाँति समूचे भारत में फैल गई । हालात बहुत तेजी से बदलने लगे । परिणामस्वरूप गंगा घाटी की छावनियों और दिल्ली के पश्चिम की कुछ छावनियों में विद्रोह के स्वर तीव्र होने लगे ।
  • सिपाहियों ने अलग - अलग स्थानों पर अलग - अलग संकेतों के साथ अपनी कार्रवाई आरंभ की । कई स्थानों पर शाम को तोप का गोला दागा गया तो कहीं बिगुल बजाकर विद्रोह का संकेत दिया गया ।
  • सिपाहियों ने सर्वप्रथम शस्त्रागार पर कब्जा किया और सरकारी खजाने को लूटा । तत्पश्चात उन्होंने जेल और तमाम सरकारी इमारतों पर हमला किया एवं वहाँ स्थित सारे सरकारी दस्तावेज जला दिए ।
  • विद्रोह में आम लोग भी सम्मिलित हुए । फलतः इसका दायरा दिन - पर - दिन बढ़ता गया । लखनऊ , कानपुर और बरेली - जैसे बड़े शहरों में अमीर और साहूकार भी विद्रोहियों के अक्रोश के शिकार बने । क्योंकि किसान इन लोगों को न केवल अपना उत्पीड़क बल्कि अंग्रेजी का पिट्ठू मानते थे ।
  • मई - जून के महीनों में अंग्रेजी सरकार के पास विद्रोहियों की कार्रवाइयों का कोई जवाब नहीं था । एक ब्रिटिश अफसर ने लिखा है कि- " ब्रिटिश शासन ताश के किले की तरह बिखर गया । "
  • भिन्न - भिन्न स्थानों पर विद्रोह के स्वरूप में समानता का कारण आंशिक रूप से उसकी योजना और समन्वय था । निःसंदेह विभिन्न छावनियों के सिपाहियों में अच्छा संचार बना हुआ था ।
  • विद्रोह के स्वरूप से यह सिद्ध होता है कि यह योजना बनाकर किया गया विद्रोह था । इस तथ्य की पुष्टि करते हुए इतिहासकार चार्ल्स बॉल ने लिखा है कि रेजीमेंट के देशी अफसरों की पंचायतें रात को कानपुर सिपाही लाइनों में जुटती थीं । अतः कहा जा सकता है कि सिपाही अपने विद्रोह के कर्ता - धर्ता स्वयं ही थे ।
  • सिपाही इस बात को भली प्रकार से समझते थे कि अंग्रेजों से मुकाबला करने के लिए नेतृत्व और संगठन की आवश्यक है । इसी उद्देश्य से सिपाहियों ने बार - बार ऐसे लोगों की शरण में गए जो अंग्रेजों से पूर्व नेताओं की भूमिका निभाते थे । उदाहरणस्वरूप बहादुर शाह , नाना साहिब , झाँसी की रानी , जमींदार कुँवर सिंह आदि का नाम लिया जा सकता है ।
  • कानपुर के सिपाहियों और आम लोगों ने मिलकर पेशवा बाजीराव द्वतीय के उत्तराधिकारी नाना साहिब को विद्रोह का नेतृत्व सँभालने के लिए मजबूर कर दिया । इसी प्रकार से झाँसी में रानी लक्ष्मीबाई , बिहार में आरा के स्थानीय जमींदार कुँवर सिंह तथा लखनऊ में नवाब के युवा पुत्र बिरजिस कद्र को विद्रोह को नेतृत्व सँभालने के लिए मजबूर किया ।
  • कई स्थानों पर किसानों , जमींदारों तथा आदिवासियों को विद्रोह के लिए स्थानीय नेता प्रेरित कर रहे थे । शाहमल ने बड़ौत परगना के अंतर्गत आने वाले गाँवों को संगठित किया तथा छोटा नागपुर स्थित सिंहभूम के कोल आदिवासियों का नेतृत्व आदिवासी काश्तकार गोनू ने संभाला
  • विभिन्न प्रकार की अफवाहों और भविष्यवाणियों द्वारा भी लोगों को विद्रोह करने के लिए उकसाया जा रहा था । उदाहरणस्वरूप मेरठ से दिल्ली आने वाले सिपाहियों ने बहादुर शाह को गाय और सूअर की चर्बी वाले कारतूसों के बारे में बताया । उनका कहना था कि यदि वे इन कारतूसों को मुँह से लगाएंगे या स्पर्श करेंगे तो उनके धर्म भ्रष्ट हो जाएँगे ।
  • 1857 के विद्रोह में यह अफ़वाह जोरों पर थी कि अंग्रेज सरकार हिंदुओं और मुसलमानों की जाति और धर्म को किसी तरह से भ्रष्ट करना चाहती है । अफवाह फैलाने वालों का यह कहना था कि इस उद्देश्य को ध्यान में रखकर अंग्रेजों ने बाज़ार में मिलने वाले आर्ट में गाय और सूअर की हड्डियों का चूरा मिलवा दिया है । फलतः लोगों ने आटे को छूने से इनकार कर दिया ।
  • 1857 के विद्रोह को इस भविष्यवाणी से और बल मिला कि प्लासी की लड़ाई के 100 साल पूरे होते ही 23 जून 1857 को ब्रिटिश राज का अंत हो जाएगा ।
  • लार्ड विलियम बॉटक को अगुवाई में ब्रिटिश सरकार पश्चिमी शिक्षा , पश्चिमी विचारों और पश्चिमी संस्थानों की सहायता से भारतीय समाज को सुधारने हेतु विशेष प्रकार की नीतियाँ लागू की जा रही थीं । सती प्रथा को समाप्त करने हेतु अंग्रेजों ने 1829 में एक कानून बनाया । साथ - साथ हिंदू - विधवा विवाह को वैधता प्रदान करने हेतु भी कानून बनाए गए ।
  • शासकीय दुर्बलता और दत्तक पुत्र बनाने को अवैध घोषित करने की आड़ में अंग्रेजों ने न केवल अवध बल्कि झाँसी और सितारा जैसी बहुत सारी रियासतों को कब्जे में ले लिया । जो रियासत या प्रांत उनके कब्जे में आ जाता था वहाँ वे अपनी शासन व्यवस्था , अपने कानून और भू - राजस्व वसूली की अपनी व्यवस्था लागू कर देते थे । इसका उत्तर भारत का पर गहरा प्रभाव पड़ा ।
  • अवध 1857 के विद्रोह का बहुत अहम् केंद्र था । 1856 में इस रियासत को औपचारिक रूप से ब्रिटिश साम्राज्य में विलय कर लिया गया ।
  • 1801 ई ० पर अवध पर सहायक साँध थोप दी गई थी । इसके अनुसार नवाब को सेना रखने पर रोक लगा दी गई और रियासत में अंग्रेज सैनिक टुकड़ियों को तैनाती कर दी गई । साथ - साथ नवाब को ब्रिटिश रेजीमेंट की सलाह पर काम करने का आदेश दिया गया । परिणामस्वरूप नवाब अपने रियासत में कानून - व्यवस्था बनाए रखने के लिए दिन पर दिन अंग्रेज़ों पर निर्भर होता जा रहा था । उसका नियंत्रण विद्रोही मुखियाओं और ताल्लुकदारों पर भी नहीं रह गया ।
  • अंग्रेड 1850 के दशक की शुरुआत तक देश के ज्यादातर बड़े हिस्सों पर अपना अधिकार जमा चुके थे मराठा भूमि , दोआब , कर्नाटक , पंजाब और बंगाल सब अंग्रेजों की झोली में थे । बंगाल जीत के साथ प्रारंभ हुई क्षेत्रीय विस्तार का यह क्रम 1856 में अवध अधिग्रहण के साथ मुकम्मल हो जाने वाली थी ।
  • लार्ड डलहौजी द्वारा अपनाई गई ' हड़प नीति ' से रियासतों में गहरा असंतोष था । किंतु उतना गुस्सा किसी भी रियासत में नहीं था जितना कि अवध में था । क्योंकि यहाँ के नवाब वाजिद अली शाह पर कुशासन का आरोप लगाकर पदच्युत कर दिया गया था । हालाँकि यहाँ की जनता में वाजिद अली शाह बहुत लोकप्रिय थे ।
  • नवाब वाजिद अली शाह को हटाए जाने से समूचे अवध प्रांत में भावनात्मक उथल - पुथल मच गया । इसको भौतिक क्षति के अहसास से और बल मिला । नवाब को हटाए जाने से दरबार और उसकी संस्कृति समाप्त हो गई । नर्तकों , संगीतकारों , कवियों , कारीगरों , बावर्चियों , सरकारी कर्मचारियों और बहुत सारे लोगों की रोजी - रोटी जाती रही ।
  • अंग्रेजों ने अवध पर आधिपत्य स्थापित करने के साथ ही ताल्लुकदारों की सेनाएँ भंग कर दीं और उनके दुर्ग ध्वस्त कर दिए ।
  • ब्रिटिश भूराजस्व नीति ने ताल्लुक़दारों के सामर्थ्य और प्रभुत्व पर गहरा आघात पहुँचाया । 1856 ई ० में एकमुश्त बंदोबस्त के नाम से ब्रिटिश भूराजस्व व्यवस्था लागू कर दी गई । इस व्यवस्था के अनुसार ताल्लुकदार बिचौलिए थे , जिनके पास जमीन का मालिकाना नहीं था । आँकड़ों से ज्ञात होता है कि ब्रिटिश शासन से पूर्व अवध के 67 % गाँव ताल्लुकदारों के अधीन थे किंतु एकमुश्त बंदोबस्त व्यवस्था लागू होने के पश्चात यह संख्या घटकर 38 % रह गई ।
  • ताल्लुकदारों के बेदखल होने से पूरी सामाजिक व्यवस्था छिन्न - भिन्न हो गई । अंग्रेजों से पूर्व ताल्लुकदार ही जनता का शोषण करते थे । फिर भी एक अभिभावक की छवि रखते थे । वे बुरे वक्त में किसानों की मदद करते थे । अब अंग्रेज़ों के राज में मनमाने ढंग से राजस्व आकलन और गैर - लचीली राजस्व व्यवस्था के तहत किसान बुरी तरह पीसने लगे ।
  • 1857 के दौरान अवध में प्रतिरोध बेहद सघन था । वहाँ लड़ाई की बागडोर ताल्लुकदारों और किसानों के ही हाथ में थी ।
  • ग्रामीण जगत और सिपाहियों के गठजोड़ से विद्रोह के स्वरूप पर गहरा प्रभाव पड़ा और इस विद्रोह के दायरे में बेतहाशा - वृदधि हुई ।
  • 1857 में विद्रोहियों द्वारा जारी घोषणाओं में जाति और धर्म का भेदभाव न के बराबर था । बहुत सारी घोषणाएँ तो मुस्लिम राजकुमारों या नवाबों द्वारा की गई थी परंतु उनमें भी हिंदू जनमानस का ख्याल रखा गया था ।
  • अंग्रेजों द्वारा हिंदू मुसलमानों के बीच लाख खाई पैदा करने की कोशिश की गई इसके बावजूद हिंदू और मुसलमानों में मधुर संबंध स्थापित रहे ।
  • ब्रिटिश शासन ध्वस्त हो जाने के पश्चात दिल्ली , लखनऊ , कानपुर जैसे स्थानों पर विद्रोहियों ने एक ही प्रकार की सत्ता और शासन व्यवस्था स्थापित करने का प्रयास किया । हालांकि यह प्रयोग ज्यादा समय तक नहीं चल सका लेकिन इन कोशिशों से ज्ञात होता है कि विद्रोही नेता अठारहवी सदी की पूर्व ब्रिटिश दुनिया को पुनर्स्थापित करना चाहते थे । 
  • विद्रोह और विद्रोहियों को कुचलने हेतु अंग्रेजों ने पूरे उत्तर भारत में मार्शल लॉ लागू कर दिया । यहीं नहीं फौजी अफसरों और आम अंग्रेजों को भी विद्रोही गतिविधियों में शामिल हिंदुस्तानियों पर मुकदमा चलाने और सजा देने का अधिकार दे दिया गया । सरकार द्वारा स्पष्ट कर दिया गया कि विद्रोहियों की मात्र एक सजा है सजा - ए - मौत । 
  • अंग्रेज सरकार ने विद्रोह को कुचलते समय विद्रोहियों की तरह दिल्ली के सांकेतिक महत्व को भली प्रकार से समझते थे । लिहाजा उन्होंने दिल्ली पर दोतरफा हमला बोल दिया । एक तरफ कलकत्ते से , और दूसरी तरफ पंजाब से दिल्ली के लिए , कूच हुआ । दिल्ली पर अधिकार जमाने की कोशिश अंग्रेजों ने जून 1857 में शुरू की किंतु यह कार्य सितंबर में जाकर पूरा हुआ । 
  • वर्तमान उत्तर प्रदेश के बड़े - बड़े भूस्वामियों और काश्तकारों ने मिलकर अंग्रेजों से लोहा लिया । अंग्रेजों ने इस एकता को तोड़ने के लिए यह चेतावनी जारी किया कि विद्रोह का रास्ता अपनाने वाले जमींदारों को जमीन से बेदखल कर दिया जाएगा । किंतु इसका असर धरातल पर न के बराबर दिखाई दिया । बहुत सारे जमींदार या तो अंग्रेजों से लड़ते लड़ते मारे गए या भागकर नेपाल चले गए , जहाँ उन्होंने भूख और बीमारी से दम तोड़ दिया ।
  • अंग्रेजों और भारतीयों द्वारा बनाई गई तसवीरें सैनिक विद्रोह का एक महत्त्वपूर्ण रिकॉर्ड रही हैं । अंग्रेजों द्वारा बनाई गई तसवीरों में अंग्रेजों को बचाने और विद्रोहियों को कुचलने वाले अंग्रेज़ नायकों का यशोगान किया गया है । 1859 में टॉमस जोन्स बार्कर द्वारा बनाया गया चित्र ' रिलीफ़ ऑफ़ लखनऊ ' इसी श्रेणी का एक उदाहरण है ।
  • जोजेफ़ नोएल पेटन ने सैनिक विद्रोह के दो साल बाद ' इन मेमोरियल ' नामक चित्र बनाई । इस चित्र में अंग्रेज़ बच्चे और औरतें एक घेरे में एक - दूसरे को पकड़े दिखाई देते हैं , मानो भयानक रूप से आतंकित हैं । उस समय इसी प्रकार के चित्रों और इसी पृष्ठभूमि को दर्शाती हुई अखबारों की कहानियों को पढ़कर ब्रिटेन की जनता अपनी सरकार से भारतीयों को सबक सिखाने की माँग करने लगी । 
  • जैसे - जैसे ब्रिटेन में गुस्से का माहौल बनता गया वैस - वैसे बदले की माँग बढ़ती गई । विद्रोह के बारे में प्रकाशित खबरों और उनके साथ छपे चित्रों ने ब्रिटेन में ऐसा माहौल रच दिया जिसमें हिंसा पर आधारित प्रतिशोध को वाजिब माना जाने लगा । 
  • इतिहास लेखन की तहत कला और साहित्य ने भी 1857 के घटनाक्रम को जीवंत बनाने में अहम् योगदान दिया । विद्रोह की अगुआयी करने वाले नेताओं को नायकों के रूप में प्रस्तुत किया गया । 
  • रानी लक्ष्मीबाई के शौर्य का गौरवगान करते हुए कई कविताएँ लिखी गई । देश के विभिन्न भागों में बच्चे सुभद्रा कुमारी चौहान की इन पंक्तियों को पढ़ते हुए युवा हो रहे थे- " खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी । " साथ - साथ लोक छवियों में रानी लक्ष्मीबाई को अधिकांश फौजी पोशाक में घोड़े पर सवार और एक हाथ में तलवार लिए दर्शाया जाता है , जो कि न्याय और विदेशी शासन के दृढ़ प्रतिशोध का प्रतीक है ।